सिग्नल पर साबुन-अगरबत्ती बेच कर बने डॉक्टर, अब कर चुके हैं 37 हजार बच्चों की फ्री सर्जरी

इस मतलबी दुनिया में जहां हर शख्स अपना उल्लू सीधा करने के लिए और केवल पैसों के पीछे भाग रहा है, वहीं कुछ शख्स ऐसे भी हैं जो तन-मन-धन से समाज सेवा में लगे हुए हैं। हम आपको आज एक ऐसे ही शख्स के बारे में बता रहे प्लास्टिक सर्जन डॉ. सुबोध कुमार सिंह।
बचपन में हो गई पिता की मौत
डॉ. सुबोध बचपन से ही मेधावी छात्र थे। सुबोध जब 13 साल के थे तब उनके पिता की मौत हो गई। इसके बाद उनकी मां भी बीमार रहने लगीं। घर में आमदनी का कोई और सोर्स नहीं था। उनके परिवार की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी। साल 1979 में अपनी पढ़ाई के साथ-साथ परिवार की मदद करने के लिए सुबोध ने सिग्नल पर चश्मे, अगरबत्ती और साबुन बेचे।
उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ कई छोटी-मोटी नौकरी भी की। हालात इतने खराब थे कि उनके भाइयों को घर चलाने के लिए मजबूरन पढ़ाई छोड़नी पड़ी। पैसों की कमी के कारण हालत इतनी खराब थी कि उनके भाइयों को घर चलाने के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इन सबके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए हर संभव कोशिश की।
बताई बचपन की कहानी
डॉ. सुबोध बताते हैं, “मैं जब अपने बचपन के बारे में सोचता हूं तो लगता है वो समय कैसे निकला होगा, लेकिन बचपन में मैं आम बच्चों जैसा ही था। मेरा पढ़ाई की तरफ काफी रुझान रहा। इसके लिए मेरे भाइयों ने बहुत सपोर्ट किया। उनकी मेहनत और त्याग बेकार न जाए, इसलिए मैं कड़ी मेहनत करता रहा। दसवीं कक्षा की परीक्षाओं के दौरान मैंने एक जनरल स्टोर में भी काम किया। इसके अलावा मां की मदद के लिए पढ़ाई के साथ घर पर खाना भी बनाता था। हमारी मां काफी बीमार रहती थीं, इसलिए घर चलाने की जिम्मेदारी हम भाइयों के कंधों पर थी।”
प्लास्टिक सर्जन बन चुके हैं डॉ. सुबोध
सुबोध के पिता रेलवे में क्लर्क थे। ऐसे में उनके निधन के बाद, बड़े भाई को मुआवजे के तौर पर नौकरी मिली, लेकिन भाई को मिलने वाली ज्यादातर सैलरी कर्ज चुकाने में चली जाती थी। घर चलाना मुश्किल था। लेकिन आज सुबोध एक प्रतिष्ठित प्लास्टिक सर्जन बन चुके हैं।
बर्न पेशेंट का करते हैं इलाज
डॉ. सुबोध पढ़ाई के बाद 1994 से बर्न पेशेंट्स की सर्जरी करने लगे। फिर 1997 में उन्होंने वाराणसी के प्राइवेट हॉस्पिटल में उन्होंने एक बर्न यूनिट ओपन किया जिसे कुछ कारणों से बंद करना पड़ा। फिर उन्होंने अपने ही हॉस्पिटल में एक बर्न यूनिट तैयार कराया। जहां किसी हादसे में जल गए लोगों को एडमिट कर उनका इलाज किया जाता है। फिर प्लास्टिक सर्जरी की मदद के बॉडी पार्ट को फिर से बनाया जाता है।
NGO करते हैं सर्जरी में मदद
सर्जरी के खर्च के बारे में पूछने पर सुबोध बताते हैं, ‘इन सर्जरी में काफी पैसा लगता है, जिसके लिए कई NGO हमारी मदद करते हैं। अस्पताल मेरा अपना है इसलिए कई खर्च बच जाते हैं। सर्जरी में लगने वाली दवाइयों और दूसरी जरूरतें NGO की मदद से पूरी हो जाती हैं।’
अब तक कर चुके हैं 37,000 मुफ्त सर्जरी
सुबोध होंठ और तालु की सर्जरी करते हैं। स्माइल ट्रेन इंडिया संगठन से जुड़कर सुबोध अब तक 37,000 मुफ्त फांक-तालु सर्जरी कर 25,000 परिवारों के जीवन में मुस्कान वापस ला चुके हैं। फांक तालु की समस्या जन्म के समय कई बच्चों में देखने को मिलती है। यह आनुवांशिक भी हो सकती है। इस समस्या में बच्चे को बोलने और खाना खाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। गरीबों के लिए डॉ. सिंह की सेवा ने उन्हें व्यापक पहचान दिलाई। साल 2009 में उन्हें अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया जबकि साल 2013 में उन्हें विंबलडन पुरुष एकल के फाइनल मैच में कोर्ट पर सम्मानित किया गया।