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मातंगिनी हाज़रा.. वो महिला जिन्होंने गोलियों से छलनी होने के बाद भी नहीं गिरने दिया तिरंगा

मातंगिनी हाज़रा.. आज हम कहीं भी आने-जाने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं और अपनी इच्छानुसार जीवन जी रहे हैं। लेकिन हमें आजादी 1 दिन, 1 हफ्ते या 1 महीने या 1 साल में नहीं मिली है। आजादी के लिए हजारों लोगों ने बलिदान दिया है। आज हम आजाद हवा में सांस ले रहे हैं लेकिन इसी आजादी के लिए लाखों आम लोगों ने अपना सब कुछ गंवा दिया। उन्हें भविष्य की चिंता थी जिसकी वजह से उन्होंने अपना वर्तमान न्यौछावर कर दिया।

आजादी की जंग लड़ने वालों में से बहुत से लोगों को हम अच्छी तरह से जानते हैं और उनकी जयंती और बरसी मनाते हैं परंतु ऐसे बहुत से नाम हैं, जो इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गए हैं और उनके नाम का कोई रिकॉर्ड भी नहीं है। आज हम आपको इस लेख के माध्यम से एक ऐसी महिला के बारे में बताने वाले हैं, जिनके सिर पर देश को अंग्रेजों से आजाद कराने की धुन सवार थी। वह महिला मातंगिनी हाज़रा थीं।

जानिए मातंगिनी हाज़रा कौन थीं

मातंगिनी हाज़रा का जन्म 19 अक्टूबर 1870 को पश्चिम बंगाल के तमलुक शहर से कुछ दूरी पर मौजूद होगला मिदनीपुर जिला में हुआ था। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो मातंगिनी का जन्म 1869 बताया जाता है। उनके घर की आर्थिक स्थिति ज्यादा ठीक नहीं थी। उनके पिता ठाकुरदास मेती जैसे-तैसे घर चलाते थे, जिसका मातंगिनी हाजरा के जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा। ना ही वह उचित शिक्षा प्राप्त कर पाईं, ना ही अपना बचपन अच्छे से गुजार पाईं।

आपको बता दें कि उस समय के दौरान देश में बाल विवाह का प्रचलन था और गरीब कम उम्र की नाबालिक लड़कियों का विवाह बूढ़े जमींदारों, रईसों से कर दिया जाता था। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मातंगिनी हाज़रा के पिताजी ने महज 12 साल की उम्र में उनकी शादी 60 साल के उम्र के त्रिलोचन हाजरा से कर दी थी। त्रिलोचन हाजरा पहले से ही एक बेटे के पिता थे। ज्यादा उम्र होने की वजह से मातंगिनी हाज़रा के पति उनके साथ अधिक वक़्त तक नहीं रह पाए। 18 साल की उम्र आते-आते मातंगिनी हाज़रा के पति चल बसे।

विधवा होने के बाद करने लगीं सामाजिक कार्य

जब मातंगिनी हाज़रा के पति चल बसे तो पति के जाने के बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह से सामाजिक कार्यों में लगा दिया। जब भी मातंगिनी हाज़रा आसपास किसी को भी परेशानी में देखा करती थीं, तो वह उसकी हर संभव मदद किया करती थीं। इसी प्रकार से मातंगिनी हाज़रा का समय दूसरों की सेवा करते हुए व्यतीत होने लगा था।

जुड़ी राजनीति से

20वीं शताब्दी की शुरुआत में देश में आजादी की लौ काफी तेज हो गई थी। पूरे भारत में बस एक ही स्वर गूंज रहा था कि अंग्रेजों को देश से बाहर करना। मातंगिनी हाज़रा गांधीजी से खासी प्रभावित रहीं यही कारण रहा कि 1905 में 35 की उम्र में वह भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गईं। वैसे तो पूरे देश में ही महिलाएं और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे लेकिन मिदनापुर की हवा अलग ही थी। यहां बहुत ज्यादा संख्या में औरतें स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ीं और उन्हीं में से एक मातंगिनी हाज़रा थीं।

वह 31 दिसंबर 1929 का समय था, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का घोषणा पत्र तैयार किया गया था और पूर्ण स्वराज को कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य घोषित किया गया। 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाने के लिए देशवासियों को कहा गया। पूर्ण स्वराज घोषित करने के बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई। 12 मार्च 1930 से 6 अप्रैल 1930 के बीच 26 दिन की पदयात्रा गांधी जी ने की।

मातंगिनी पूरी तरह से गांधी विचारधारा का पालन सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होने तक करने लगी थीं। वह गरीबों की सहायता करतीं और चरखा चलाकर खादी बनाया करतीं। 26 जनवरी 1932 को सैकड़ों पुरुष अंग्रेज सरकार के खिलाफ पद यात्रा निकाल रहे थे जैसे ही यह काफिला मातंगिनी के घर के सामने से गुजरा तो 62 साल की मातंगिनी भी काफीले में शामिल हो गईं।

इस साल मातंगिनी ने अलीनन नमक सेंटर में नमक बनाया। अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था और बूढ़ी मातंगिनी को कई मील पैदल चलाया गया। वह इस दौरान जेल भी गईं लेकिन कुछ दिनों के बाद उन्हें छोड़ दिया गया था।

चौकीदारी टैक्स के खिलाफ आवाज उठाई

अंग्रेजों से मातंगिनी बिल्कुल भी नहीं डरा करती थीं, उन्होंने जेल की प्रताड़ना सही परंतु वह अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हटीं। जब वह जेल से रिहा हुईं, तो उसके बाद उन्होंने चौकीदारी टैक्स के खिलाफ हो रहे आंदोलन में हिस्सा लिया था। 1933 में जब मातंगिनी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सब डिविजनल कॉन्फ्रेंस में हिस्सा ले रही थीं, तब अंग्रेजों ने निहत्थे लोगों पर लाठीचार्ज कर दिया था, जिसमें मातंगिनी बुरी तरह से घायल हो गई थीं। इसके बावजूद भी मातंगिनी कमजोर नहीं पड़ी।

साल 1933 में ही जिले की राजधानी में एक मार्च निकाला गया, जो गवर्नर हाउस तक होना था। गवर्नर सर जॉन एंडरसन घर की बालकनी पर खड़ा होकर मार्च देख रहा था। स्वतंत्रता का झंडा लिए सबसे आगे खड़ी थीं मातंगनी। जैसे ही गवर्नर अपनी बालकनी के नीचे पहुंचा तो मातंगनी ने अपना बैनर ऊपर किया और ऊंची आवाज में “लाट साहिब वापस जाओ” बोलीं।

जब यह घटना हुई तो उसके बाद मातंगिनी को लाठियां भी खानी पड़ी। उन्हें कठिन परिश्रम के साथ 6 महीने की जेल हो गई। जब वह जेल में बंद थीं, तब उनकी तबीयत काफी खराब हो गई थी परंतु इसके बावजूद भी वह नहीं टूटी थीं। जब वह जेल से रिहा हुईं तो फिर से उन्होंने गरीबों की सहायता करना शुरू कर दिया।

गोलियों से छलनी होने के बाद भी तिरंगे को ना तो झुकने दिया और ना ही गिरने

बता दें कि अगस्त 1942 में गांधीजी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया था। उसी साल सितंबर में कुल 6000 लोगों का जुलूस था। इस समूह का मक़सद तामलुक पुलिस स्टेशन अंग्रेज़ों से छीनना था। इसमें मातंगिनी हाजरा ने भी विरोध प्रदर्शनों के साथ मिलकर पदयात्रा निकाली। 73 वर्षीय मातंगिनी हाथ में आजादी का झंडा लिए आगे बढ़ीं और अंग्रेजों से विनम्रता से विरोध प्रदर्शन पर गोलियां ना चलाने की अपील की।

लेकिन अंग्रेजों ने एक भी ना सुनी और मातंगिनी पर तीन गोलियां चलाई। मातंगिनी जख्मी हो गई थीं परंतु ऐसी हालत में भी वह आजादी का झंडा हाथ में लिए आगे बढ़ती रहीं और वंदे मातरम की हुंकान भर कर जमीन पर गिर पड़ी लेकिन हाथ से उन्होंने झंडा नहीं गिरने दिया।

आपको बता दें कि साल 2002 में भारत छोड़ो आंदोलन की 60वीं वर्षगांठ पर भारतीय डाक के द्वारा मातंगिनी हाजरा के नाम पर ₹5 का डाकघर टिकट निकाला गया। पश्चिम बंगाल स्थित उनके गांव में उनके नाम पर ही एक घर बनाया गया और 2015 में पूर्व मेदनीपुर में उनके नाम पर महिलाओं का कॉलेज भी आरंभ किया गया। मातंगिनी हाजरा के नाम पर पूरे राज्य में कई गलियां और स्कूल, सड़कें हैं। हम मातंगिनी हाजरा के जज्बे को सलाम करते हैं।

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