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20 गेंदों में 67 रन बनाने वाला धाकड़ बल्लेबाज अब पेट पालने के लिए चला रहा रिक्शा

दिव्यांग क्रिकेट सर्किट में अपनी ताबड़तोड़ बल्लेबाजी से धमाल मचा चुके गाजियाबाद के राजा बाबू आज पेट पालने के लिए ई रिक्शा चलाने के लिए मजबूर हो गए हैं। राजा बाबू बताते हैं कि कोरोना वायरस महामारी ने उनके करियर और जिंदगी दोनों की दिशा बदलकर रख दी। अब उन्हें 4 लोगों के परिवार जिनमें पत्‍नी निधि (27) और बच्‍चे- कृष्‍णा (7) और शानवी (4) शामिल हैं, को पालने के लिए रोज सड़कों की खाक छाननी पड़ती है।

राजा बाबू उस दौरान चर्चा में आए थे, जब साल 2017 में दिल्ली और उत्तर प्रदेश के बीच हुए एक दिव्यांग क्रिकेट मैच में उन्होंने 20 गेंदों में 67 रन ठोक दिए थे। साल 2017 में राष्ट्रीय स्तर पर खेले गए इस मैच का नाम “हौसलों की उड़ान” था, जिसमें राजा बाबू ने दिल्ली के खिलाफ उत्तर प्रदेश को जीत दिलाई थी। उस पारी के लिए राजा बाबू को ना सिर्फ तारीफें मिली, बल्कि इनाम भी मिले।

ताबड़तोड़ बल्लेबाजी से प्रभावित होकर कारोबार ने दिया ई-रिक्शा

राजा बाबू की ताबड़तोड़ बल्लेबाजी से प्रभावित होकर एक लोकल कारोबारी ने उन्हें ई-रिक्‍शा इनाम के रूप में दिया परंतु तब राजा बाबू ने यह सोचा भी नहीं था कि यह इनाम एक दिन उनके इतना काम आएगा। बाएं हत्था क्रिकेटर की पहचान विस्फोटक बल्लेबाज के रूप में बनी। दिव्यांग क्रिकेट सर्किट में स्टेट और नेशनल लेवल के टूर्नामेंट में राजा बाबू ने अपनी ताबड़तोड़ बल्लेबाजी से धमाल मचाया और उनका ही जलवा हो गया।

2017 में आईपीएल की दर्ज पर एक टी-20 टूर्नामेंट में मुंबई की टीम का कप्तान उन्हें चुना गया। लेकिन पिछले 2 साल से भी ज्यादा समय से 31 वर्षीय राजा बाबू गाजियाबाद की सड़कों पर वही ई-रिक्‍शा चलाकर अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं।

गुजारा चलाने के लिए कभी बेचा दूध तो कभी ई-रिक्शा चलाया

राजा बाबू को क्रिकेट खेलने के दौरान से ही इधर-उधर काम करना पड़ता था। उन्हें अपनी इनकम बढ़ाने के लिए कभी-कभी ई-रिक्शा भी चलाना पड़ा। लेकिन साल 2020 राजा बाबू के लिए मुसीबतों वाला रहा, जब उत्तर प्रदेश में दिव्यांग क्रिकेटर्स के लिए बनी चैरिटेबल संस्था, दिव्यांग क्रिकेट एसोसिएशन (DCA) भंग कर दी गई। इसके बाद राजा बाबू पर आर्थिक संकट आ गया।

राजा बाबू ने कहा कि “उससे सच में हमारी कमर टूट गई। शुरुआती कुछ महीने मैंने गाजियाबाद की सड़कों पर दूध बेचा और जब मौका मिला ई-रिक्‍शा चलाया। टीम के मेरे बाकी साथी उस दौरान मेरठ में ‘डिसेबल्‍ड ढाबा’ पर डिलिवरी एजेंट्स और वेटर्स का काम करते थे। वह ढाबा एसोसिएशन के संस्‍थापक और कोच अमित शर्मा ने खोला था।”

राजा बाबू कहते हैं कि “अभी मैं बहरामपुर और विजय नगर के बीच रोज करीब 10 घंटे ई-रिक्‍शा चलाने को मजबूर हूं ताकि सिर्फ 250-300 रुपये कमा सकूं। घर का खर्च नहीं चल पाता और बच्‍चों की पढ़ाई के लिए कुछ नहीं बचा है। दिव्‍यांगों के लिए रोजगार के मौके कितने कम हैं, यह हम सबको पता है।”

आपको बता दें कि DCA उत्‍तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (UPCA) की छत्रछाया में नहीं था। अमित शर्मा ने एक मीडिया से बातचीत के दौरान यह बताया कि “हमने कुछ लोकल कारोबारियों की मदद और चंदे से एसोसिएशन चलाई। टूर्नमेंट्स के दौरान ट्रांसपोर्ट और खाने का खर्च कवर हो जाता था। DCA न तो BCCI के तहत था, न ही UPCA के, ऐसे में खिलाड़‍ियों की फिक्‍स्‍ड इनकम नहीं थी। मैन ऑफ द मैच की अवार्ड मनी के रूप में उन्‍हें जो कुछ मिलता था, वही उनकी सैलरी थी।”

वहीं यूपीसीए (दिव्‍यांग) के चेयरमैन अतुल श्रीवास्तव बताते हैं कि दिव्यांग क्रिकेटर्स का सारा खर्च बांग्लादेश जैसे देशों में क्रिकेट एसोसिएशन उठाती है। रिटायरमेंट के बाद उनको पेंशन भी दिया जाता है। उन्होंने बताया कि “BCCI को भी इस दिशा में कदम उठाने चाहिए ताकि दिव्‍यांग क्रिकेटर्स पैसे और नौकरी की चिंता किए बिना खेल सकें।”

आपको बता दें कि इसी वर्ष अप्रैल में BCCI की शीर्ष काउंसलिंग में दिव्यांगों, मूक-बधिरों और वीलचेयर पार्टिसिपेंट्स के बीच क्रिकेट को प्रमोट करने के लिए डिफरेंटली एबल्‍ड क्रिकेट काउंसिल ऑफ इंडिया (DCCI) को आधिकारिक संस्‍था के रूप में मान्यता दी गई है।

ट्रेन हादसे में गंवाए पैर

राजा बाबू बताते हैं कि 1997 में स्कूल से घर लौटते समय एक ट्रेन हादसे में उन्होंने अपना बायां पर खो दिया था। उस समय राजा बाबू के पिता रेलवे में ग्रेड IV कर्मचारी थे और कानपुर के पनकी में तैनात थे। इस हादसे के बाद राजा बाबू की पढ़ाई रुक गई क्योंकि परिवार स्कूल की फीस चुका पाने में सक्षम नहीं था। इस हादसे ने राजा बाबू की जिंदगी बदल कर रख दी। लेकिन उन्होंने सपने देखना नहीं छोड़ा। महामारी में एक के बाद एक कई मुसीबतें आई, परंतु इसके बावजूद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

12 साल की उम्र से शुरू किया क्रिकेट

आपको बता दें कि जब राजा बाबू की उम्र 12 वर्ष की थी तब उनका और क्रिकेट का रिश्ता शुरू हुआ था। तब वह गली क्रिकेट में हाथ आजमाया करते थे। साल 2000 में उन्होंने कानपुर में आरामीना ग्राउंड पर ट्रेनिंग शुरू की। जब उनकी उम्र 23 वर्ष थी तो वह जिला स्तर के टूर्नामेंट खेल रहे थे।

राजा बाबू ने बताते हैं कि “2013 में मैंने बिजनौर में कुछ टूर्नमेंट्स खेले। उसी दौरान शर्मा जो तब DCA के निदेशक थे, मुझे एसोसिएशन से जुड़ने को कहा। 2015 के उत्‍तराखंड दिव्‍यांग क्रिकेट टूर्नमेंट में मुझे बेस्‍ट प्‍लेयर का अवार्ड मिला। अगले साल मैं यूपी टीम का कैप्‍टन बन गया।” बाबू के अनुसार, “वह उनके करियर के कुछ सबसे अच्‍छे साल रहे।”

नौकरी छोड़ उठाया बल्ला

जब राजा बाबू की शादी हो गई तो उसके बाद 2014 में वह नौकरी की तलाश में गाजियाबाद आ गए थे। राजा बाबू ने यह बताया कि ₹200 दिहाड़ी पर उन्होंने जूता बनाने वाली एक फैक्ट्री में काम करना शुरू किया। उस समय उन्हें पैसों की बहुत जरूरत थी। उनके लिए क्रिकेट और फैक्‍ट्री के काम में तालमेल बिठा पाना बहुत कठिन हो रहा था। इसी वजह से उन्होंने महज 6 महीने बाद ही अपनी नौकरी छोड़कर सिर्फ क्रिकेट पर फोकस करने के बारे में सोचा।

राजा बाबू एक ऐसे खिलाड़ी थे जिनको हर टीम अपने साथ चाहती थी। टूर्नमेंट के हिसाब से वह कभी क्रचेज के साथ खेलते, कभी व्हीलचेयर पर खेलते। जब उनकी किस्मत चमकी तो उत्तर प्रदेश और गुजरात में उन्होंने कुछ अवार्ड्स जीते। 2016 में वह नेशनल लेवल के टूर्नामेंट में मैन ऑफ द मैच भी रहे थे। इसके बाद उसी साल बिहार सरकार के द्वारा उन्हें खेल के क्षेत्र में योगदान के लिए सम्मानित भी किया गया। इन सबके बावजूद भी नियमित आमदनी और बढ़िया बैंक बैलेंस का भरोसा ना मिल पाया। प्रोफेशनल क्रिकेट की तरह दिव्यांग क्रिकेट में पैसा नहीं बहता।

राजा बाबू बताते हैं कि “मैच खेलते हुए मुझे मेडल्‍स भी मिले और इज्‍जत भी मगर गुजारे के लिए उतना काफी नहीं था। 2022 में मैंने मध्‍य प्रदेश के लिए फिर से वीलचेयर क्रिकेट खेलना शुरू किया लेकिन महामारी के चलते कुछ मैच ही हो पाए। हम भी क्रिकेटर्स हैं मगर महामारी के दौरान हमें क्रिकेट संस्‍थाओं से कोई मदद नहीं मिली। हम वह खा रहे थे जो भले लोग सड़क पर बांटते थे। जब लॉकडाउन लगा तो जमा के नाम पर मेरे पास कुल 3,000 रुपये थे। वो कितने दिन चलते भला? मैंने दो बार घर बदला क्‍योंकि किराया चुकाने के पैसे नहीं थे।”

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