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भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मारवाड़ी समाज की भूमिका

स्वतंत्रता की भावना संस्कृति से ही प्रसारित होती है ‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं’- इस भावना के मूल में देश प्रेम की भावना कार्य करती है जिसका आधार मज़बूत सांस्कृतिक धरोहर होती है। वैश्य भी देशप्रेम की इस पवित्र भावना से अछूते नहीं थे। मारवाड़ी के बारे में देश में प्रचलित धारणा कि ये सिर्फ व्यापारी हैं, यह एक भ्रान्ति के अलावा कुछ नहीं ।(Bharat ke swatantrata sangram mein marwadi samaj ki bhumika)

संस्कृति, साहित्य और राष्ट्रीयता के उत्थान में मारवाड़ी वैश्यों का तन-मन-धन का भरपूर सहयोग रहा। कोलकाता के राजस्थानी कवि और शायर चम्पालाल मोहता ’अनोखा’ के अभिनन्दन पर वरिष्ठ कवि श्री ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’ ने मारवाड़ी वैश्य समाज का साहित्य और संस्कृति के विकास में अहम योगदान स्वीकार करते हुए अध्यक्षीय व्यक्तव्य में कहा कि वैश्य समाज देश का कवच और अस्त्र है । वर्तमान में यह याद करना समीचीन होगा कि भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में मारवाड़ी समाज की क्या भूमिका रही ?

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मारवाड़ी समाज की भूमिका (Bharat ke swatantrata sangram mein marwadi samaj ki bhumika)

  • भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मारवाड़ी समाज की भूमिका

उन्नीसवीं शताब्दी में वैश्य पूरे अंग्रेजी भारत, दक्षिण और मध्य भारत में अपना कारोबार फैला चुके थे । इस समय तक सामान्य रूप से इस वर्ग का अंग्रेज सरकार या अंग्रेज व्यापारियों की नीति से कोई मतभेद नहीं था, परन्तु जो व्यापारी अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ‘जफ़र’ और मध्य भारत की देशी रियासतों के शाषकों के संपर्क में थे उनका अंग्रेज सरकार से मोह भंग होने लगा था। सन 1857 तक यह रोष बढ़ गया । देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में इन व्यापारियों ने अपनी जान माल की परवाह किये बगैर स्वतंत्रता सेनानियों की मदद की। यह मदद मुख्य रूप से आंदोलन के लिए धन देकर की गई थी। इस आर्थिक मदद से अंग्रेज सरकार इतनी घबरा गई कि इन व्यापारियों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया।

सन 1857 में दिल्ली में मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ‘जफ़र’ की खुल्लमखुल्ला आर्थिक मदद करने वाले रामजीदास गुड़वाला का खजाना जब्त कर अंग्रेजो ने उन्हें फांसी पर लटका दिया। सेठ रामजीदास गुड़वाला ने बादशाह को 3 करोड़ रुपये दान दिए थे। रामजीदास गुड़वाला मूलतः हरयाणा के अग्रवाल परिवार से थे और दिल्ली के नगरसेठ थे। सन 1857 में ग्वालियर राज्य का खजाना वहाँ के नामचीन व्यापारी सेठ अमरचंद बांठिया की देख रेख में था । सेठ बांठिया मूल रूप से बीकानेर रियासत का मारवाड़ी व्यापारी था जब ग्वालियर पर रानी लक्ष्मी बाई , नाना साहेब और तांत्या टोपे का हमला हुआ तब सेठ बांठिया ने ग्वालियर का खज़ाना इनकी सेना के खर्च पूर्ति हेतु इन्हें ही सौंप दिया । अंग्रेज सरकार ने इस घटना को राजद्रोह मानकर #सेठ_अमरचंद_बांठिया ’#बीकानेर_वाला’ को फांसी पर चढा दिया।

इसी तरह जब तांत्या टोपे भागकर जयपुर से लालसोट होते हुए सीकर पहुंचे तो सेठ रामप्रकाश अग्रवाल ने गहने और धन देकर उनकी मदद की। शोलापुर के कृष्णदास_सारडा और सतारा के सेठ सेवाराम मोर, हरयाणा के लाला_हुकुमचंद (अग्रवाल जैन) भी अपनी उग्र कारवाइयों के चलते फांसी पर झूला दिए गये । 1857 के क्रांतिकारियों के बीच समनव्यय का कार्य मारवाड़ी वैश्य वर्ग ने किया। सन्देश-समाचार पहुंचाना, सन्देश वाहकों को अपने घर में आश्रय देना, क्रांतिकारियों और उनके रिश्तेदारों को अपने यहाँ छुपाकर रखना आदि अनेक कार्य मारवाड़ी व्यापारियों द्वारा किये जाते रहे। 1857 की क्रांति की असफलता के बाद नाना साहब पेशवा का भतीजा मार्च 1862 में दक्षिण भारत के हैदराबाद में #सेठ_मोहन_लाल_पित्ती और #सेठ_शरण_मल के यहाँ गुप्त रूप से रह रहा था, पता चलने पर अंग्रेज सरकार ने दोनों पर भारी जुर्माना ठोक कर उन्हें सजा दी।

सन 1857 की क्रांति के बाद से सन 1900 तक वैश्यों और अंग्रेजों में सीधा टकराव नहीं हुआ विद्रोह के बाद दोनों पक्ष अपनी अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में लगे हुए थे। इस समय तक प्रशाष्निक सुधारों के नाम पर देश की लगभग सभी रियासतों में परंपरागत कानून की जगह अंग्रेजी कानून लागू हो चूका था। इसका असर दूसरे वर्गों के साथ साथ व्यापारी वर्ग के परंपरागत विशेषाधिकारों पर भी पड़ा इस कारण रियासतों के व्यापारी और उनके प्रवासी भाई-बंधू , दोनों में अंग्रेजों के प्रति कटुता बढती गई। उदयपुर राज्य के लगभग 2000 व्यापारी 30 मार्च 1864 को नगरसेठ चम्पालाल के नेतृत्व में कर्नल ईडन के घर विरोध प्रदर्शन के लिए पहुंचे और सात दिनों की हड़ताल के बाद समझौता हुआ ।

कालांतर में मारवाड़ी व्यापारी अंग्रेज व्यापारियों के एकाधिकार को हर जगह चुनौती देने लगे। शीघ्र ही मारवाड़ी व्यापारिओं की समझ में आ गया की राजनितिक दबाव और समर्थन के बगैर केंद्रीय सत्ता से जुड़े अंग्रेज व्यापारियों से व्यावसायिक टक्कर लेना मुश्किल है अंतः 1898 में बंगाल के मारवाड़ी व्यापारियों ने ‘मारवाड़ी एसोसियेशन’ नाम की संस्था बनायीं ।

इस संस्था की स्थापना के साथ उनकी घोषणा थी-‘ राजनीति का सम्बन्ध व्यापार से रहता है और यह प्रत्यक्ष रूप से व्यापार को प्रभावित करती है, इसलिए ‘मारवाड़ी एसोसियेशन’ भारत की राजनीति से परहेज़ नहीं रखेगी’ । इसके साथ ही मारवाड़ियों से सम्बंधित पत्र-पत्रिकाओं में , जिसमे ‘मारवाड़ी’ और ‘अग्रवाल’ पत्रिकाएं उल्लेखनीय है, मारवाड़ी व्यापारियों से राजनीति में सक्रिय योगदान का आह्वान किया गया देखते ही देखते ‘मारवाड़ी एसोसियेशन’, ‘वैश्य सभा’ और ‘बुद्धिवर्धिनी सभा’ के माध्यम से सैकड़ों प्रगतिशील मारवाड़ी युवक तत्कालीन भारतीय राजनीति में रूचि लेने लगे।

‘मारवाड़ी एसोसियेशन’, ‘वैश्य सभा’ और ‘बुद्धिवर्धिनी सभा’ के माध्यम से सैकड़ों प्रगतिशील मारवाड़ी युवक तत्कालीन भारतीय राजनीति में रूचि लेने लगे थे । सन 1905 के आते-आते ये मारवाड़ी युवा राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ने शुरू हो गये बंग भंग के विरोध में बंगाल के जन आंदोलन में, विरोध सभाओं में और बाद में बंगाल के क्रन्तिकारी आंदोलन में ये युवक सक्रिय भूमिकाओं में नज़र आने लगे।  बंगाल के मारवाड़ी व्यापारियों ने इंग्लैण्ड स्थित मैंनचेस्टर के ‘चेंबर ऑफ कामर्स’ से अनुरोध किया की वे ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालें और बंग भंग को रुकवाने में मदद करें । विदेशी माल के बहिष्कार आंदोलन को मारवाड़ी व्यापारियों के सहयोग से बल मिला। सितम्बर 1904 में बंगाल में जहाँ 77000 रुपये का विदेशी कपडा बिका वहीँ सितम्बर 1905 में मात्र 10000 रुपये का। 21 अक्टूबर 1905 को ‘भारतमित्र’ में ‘बंगविच्छेद’ शीर्षक लेख में लार्ड कर्जन को उग्र मुद्रा में बाल मुकुन्द गुप्त ने संबोधित किया,

‘आपके शाषन काल में बंगाविच्छेद इस देश के लिए अंतिम विषाद और आपके लिए अंतिम हर्ष है……दुर्बल की अंग्रेज नहीं सुनते”

मारवाड़ियों में आक्रोश की लहर उठी ‘जणनी जने तो दोय जण, के दाता के सूर’ की परंपरा के मारवाड़ी अग्रवाल युवा #हनुमान_प्रसाद_पोद्दार ‘स्वदेश बांधव’ और ‘अनुशीलन समिति’ जैसी क्रन्तिकारी संस्थाओं के सक्रिय सदस्य बने। पोद्दार जी ने मुंबई में  अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। सन 1914 में प्रसिद्ध ‘रोड़ा कांड’ में अनुशीलन समिति से जुड़े हुए फूलचंद चौधरी, ज्वालाप्रसाद कानोडिया, प्रभु दयाल हिम्मतसिंहका, घनश्यामदास बिडला, कन्हैयालाल चित्तलान्गिया, ओंकारमल सर्राफ, और हनुमानप्रसाद पोद्दार की गिरफ्तारी के वारंट जारी किये गये। घनश्यामदास बिडला को छोड़ सभी को लंबी अवधी तक जेल में रखा गया।

ब्यावर के माहेश्वरी वंशी सेठ_दामोदरदास_राठी का बंगाल के क्रन्तिकारी अरविन्द घोष, रासबिहारी बोस और सचेतन गांगुली के साथ ही श्यामजीकृष्ण वर्मा, राजा महेंद्रप्रताप और राजस्थान के दूसरे क्रांतिकारियों से भी गहरा संपर्क रहा । कलकत्ता और काशी के क्रांतिकारियों के सहयोग से राजस्थान में भी अर्जुनलाल_सेठी के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अपनी गतिविधियां बढ़ा ली थी । उनको जयपुर के सेठ छोटेलाल और मोतीलाल ने काफी आर्थिक मदद की तब तक महात्मा गांधी का प्रवेश भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नहीं हुआ था।

सन 1915 में महात्मा गांधी के भारतीय राजनीति में पदार्पण के साथ ही मारवाड़ी व्यापारियों का झुकाव उनकी तरफ हुआ। महात्मा गांधी की भावुक राजनीति ने मारवाड़ी वैश्यों को आकर्षित किया । सेठ_जमनालाल_बजाज जी इनमे अग्रणी थे । एनी बेसेंट के होम रुल आंदोलन में सेठ फूलचंद चौधरी और सेठ कन्हैलाल चित्तलान्गीया गिरफ्तार हुए। जलियांवाला बाग की घटना में मारवाड़ी युवक भी मारे गये थे। जमनालाल बजाज ही शेखावाटी के अग्रवाल परिवार से थे। उस समय तक कांग्रेस मारवाड़ियों का महत्व समझ चुकी थी । इसलिए सन 1920 में जमना लाल बजाज को कांग्रेस पार्टी का कोषाध्यक्ष बना दिया गया।

कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में ‘तिलक स्वराज फंड’ में ज्यादा से ज्यादा कोष जमा करवाने का आव्हान महात्मा गांधी ने किया। इसके जबाब में जमनालाल बजाज, आनंदीलाल पोद्दार, रामकृष्ण मोहता, घनश्यामदास बिडला, केशोराम पोद्दार, रामकृष्ण डालमिया और सुखलाल करनानी ने लाखों रुपये स्वराज फंड में जमा करवाए । अकेले कलकत्ता के बडाबाजार से उस समय दस लाख रुपये एकत्रित हुए।  महात्मा गांधी के विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आंदोलन का नेतृत्व जमनालाल बजाज और कृष्णदास जाजू ने किया । शेखावटी के हर बड़े कसबे में घनश्याम_दास_बिडला ने खादी भण्डार खुलवा दिये थे।

जमनालाल बजाज, घनश्यामदास बिडला, कृष्णदास जाजू, सिद्धराज ढढा, ब्रजलाल बियानी दूसरे मारवाड़ी व्यापारियों के साथ खादी प्रचार-प्रसार, हरिजन उद्धार के कार्यक्रमों में महात्मा गांधी के सक्रिय सहयोगी रहे । घनश्याम दास बिडला हरिजन-सेवक संघ के अध्यक्ष थे। जमना लाल बजाज और सिद्धराज ढढा ने राजस्थान की रियासतों में घूम घूम कर खादी और हरिजन-उद्धार का बहुत प्रचार किया।  नमक सत्याग्रह में मारवाड़ियों ने खुलकर भाग लिया, असहयोग आंदोलन की रीढ़ ही मारवाड़ी व्यापारी थे त। त्कालीन बंगाल सरकार के अधिकारी ए. एच. गज़नवी ने वायसराय के प्रतिनिधि कनिंघम को 27 अगस्त 1930 को पत्र लिखा –“ महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से मारवाड़ियों को अलग कर दिया जाये तो 90 फीसदी आंदोलन यूं ही खत्म हो जायेगा ”

अंग्रेज सरकार ने बंगाल के मारवाडी व्यापारियों को आन्दोलन से अलग करने के लिए राजस्थान की रियासतों के शाषकों पर दबाव दिया लेकिन लगभग सभी रियासतों ने इसमें अपनी असमर्थता जता दी । उस समय मारवाड़ियों की संस्थाओं ने मारवाड़ियों से भारतीय राजनीति में और ज्यादा सक्रिय होने का आह्वान किया । अखिल भारतीय मारवाड़ी अग्रवाल सभा के सन 1926 में हुए सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सेठ_जमनालाल_बजाज ने आव्हान किया –‘अग्रवाल समाज ने आन्दोलनों में धन दिया,जेल भुगती लेकिन अब समय आ गया है की समाज का बच्चा-बच्चा देश पर बलिदान होने के लिए तैयार रहे”

इसी तरह अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मेलन के भागलपुर में आयोजित चौथे सम्मेलन में स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले मारवाड़ियों की प्रसंशा में प्रस्ताव पास किया गया । सुभाष चंद्र बोस की ‘आजाद हिंद फौज’ को सहयोग करने के लिए शेखावाटी के अग्रवाल सेठ भगवान दास बागला ने वर्मा में रंगून स्थित अपनी ‘नेशनल बेंक ऑफ इण्डिया’ ही सुभाष बाबु को सौंप दी ।

सन 1942 के ‘करो या मरो’ आंदोलन में डॉ.राम मनोहर लोहिया और मगनलाल बागड़ी का योगदान अविष्मर्णीय है। मालचंद हिसारिया और नेमीचंद आंचलिया गिरफ्तार हुए । भारत छोड़ो आंदोलन में 483 मारवाड़ियों को सजा सुनाई गई ।

राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान वैचारिक क्रांति में जो अखबार अपना योगदान दे रहे थे वे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मारवाड़ी व्यापारियों के आर्थिक सहयोग से ही निकाल रहे थे । हिंद केसरी, हरिजन, कर्मवीर, प्रताप, लीडर,त्याग-भूमि, भारतमित्र आदि अखबार इसकी मिशाल हैं । इस क्षेत्र में भागीरथ कानोडिया का योगदान महत्वपूर्ण है । चिडावा के ताराचंद डालमिया और मंडावे के देव किशन सर्राफ का नाम इस क्षेत्र के किसानो कि समस्या समाधान हेतु संघर्ष में अग्रणी है।

सीकर के किसानो की समस्याओं का समाधान करने के लिए सीताराम सेक्सरिया ने जमना लाल बजाज के साथ मिलकर सफल परिश्रम किया । अन्य राज्यों के किसान आंदोलनों को आर्थिक सहयोग देने में भी मारवाड़ी व्यापारी पीछे नहीं रहे।।

पंजाब केसरी और अंग्रेजों के विरुद्ध सबसे तीव्र स्वर में आंदोलन चलाने वाले लाल-बाल-पाल तिगड़ी के लाला लाजपत राय जी को कौन भूल सकता है। सन् 1928 में लाला जी साइमन कमिसन के विरोध में अंग्रेजों के क्रूर लाठीचार्ज का शिकार हुए और अपने प्राणों का त्याग कर दिया। बंगाल के लाल-बाल-पाल कही जाने वाली तिगड़ी के बिनोय बसु, बादल गुप्त और दिनेश गुप्त तिगड़ी ने भारतीयों से क्रूर व्यहवार करने वाले अंग्रेज़ अधिकारी सिम्पसन की गोली मारकर हत्या कर दी थी।

इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास का गौरव शाली अध्याय लिखने वाले मारवाड़ी वैश्य व्यापारियों ने पूरे देश के लोगों के साथ मिलकर तन,मन और धन से  भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मारवाड़ी समाज की भूमिका दर्ज की  ।

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