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जीपीएस सिस्टम की कहानी: जानिये कैसे दुनिया मैं आया ये जीपीएस सिस्टम, बेहद दिलचस्प है ये कहानी

स्मार्टफोन के जमाने में गूगल मैप हमारे लिए बड़े काम की चीज है.. कोई घर ढूंढ़ना हो, बस शहर और मकान नंबर डालिए, कुछ ही सेकेंड में स्क्रीन पर हर गली और मोड़ और लैंडमार्क तक झट से पता चल जाता है। यहां तक की गाड़ियों में जिनमें जीपीएस लगा है उनकी स्थित और लोकेशन जानने में भी जीपीएस मदद करता है। यानी जीपीएस जिन्दगी की जरूरत बन गया है, लेकिन क्या आप जानते हैं जीपीएस की शुरुआत कब और कैसे हुई। जीपीएस दुनिया में कब आया। आईए आपके जीपीएस की पूरी कहानी हम आज आपको बताते हैं।

दुनिया में जीपीएस सिस्टम के बारे में 1957 से पहले कल्पना भी नहीं की गई थी, लेकिन रूस के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में पहुंचने और इंसानी दखल धरती के अलावा दूसरे ग्रहों में पहुंचाने के लिए इसी साल सफलता पाई। रूस ने 1957 में दुनिया का सबसे पहला सैटेलाइट अंतिरक्ष में भेजा। कुछ सालों बाद रूसी वैज्ञानिकों ने पाया कि सैटेलाइट के रेडियो सिग्नल में थोड़ा बदलाव करने से दूसरे सैटेलाइट के स्थान का पता लगाया जा सकता है। जिसको नेविगेशनतक का नाम दिया गया।

रुस की इस  टेक्नॉलॉजी से बहुत से देश हैरत में थे। इसके बाद दूसरे देशों ने भी इसपर खोज शुरु की क्योंकि उनको पता था कि इसके आने से बहुत सी चीजें बेहतर हो जाएंगी। रूस के बाद अमेरिका ने इसपर काम शुरु किया। अमेरिका ने 1960 में सैटेलाइट के जरिए नेविगेशन शुरू किया। जिसका इस्तेमाल अमेरिकी नौसेना ने पनडुब्बियों की लोकेशन की जानकारी रखने के लिए किया, जिनमें परमाणु हथियार रखे हुए थे। बस यहीं से जीपीएस का असली सफ़र शुरु हुआ। इसके बाद कई सालों तक जीपीएस को और बेहतर बनाने की कोशिश हुई 1974 में बड़ी सफलता मिली। जब अमेरिकी सेना ने करीब 24 सैटेलाइट छोड़े, ताकि पूरी धरती को स्कैन किया जा सके। अमेरिका पूरी दुनिया में नजर रखना चाहता था, इसको ‘NAVSTAR’  नाम दिया गया। इसके बाद अमेरिका ने नेविगेशन पर अपनी पकड़ बना ली थी।

शुरू में जीपीएस सिर्फ अमेरिकी सेना ही इस्तेमाल करती थी। लेकिन एक हादसे ने सब बदल दिया। सितंबर 1983 में अमेरिका से दक्षिण कोरिया के लिए यात्रियों से भरे प्लेन ने उड़ान भरी। उस समय प्लेन में जीपीएस नहीं होते थे। विमान कंप्यूटर के जरिए अपना रास्ता पता लगाते थे। कोरिया एयरलाइन्स का प्लेन जब अलास्का में ईंधन भरने के लिए उतरा तो उसका कंप्यूटर खराब हो गया। जिसके बाद पायलट को दिशा भ्रम हो गया। प्लेन रूस की तरफ चला गया, साथ ही उस जगह मडराने लगा जहां परमाणु हथियार रखे थे। रूस को लगा कि वह कोई जासूसी प्लेन है। रूस ने अपने लड़ाकू जहाज प्लेन को मार गिराने के लिए भेज दिए। लड़ाकू विमानों ने प्लेन को नष्ट कर दिया जिससे 269 लोगों की जान चली गई।

इसके बाद अमेरिका के तात्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड विलसन रीगन ने एक फैसला किया कि जीपीएस को अमेरिका दूसरे देशों से भी शेयर करेगा। इसके बाद करीब 10 बिलियन डॉलर और 10 सालों की मेहनत के बाद जीपीएस को बाकी देशों के लिए तैयार किया जा सका। 1995 में अमेरिकी सरकार और प्राइवेट कंपनियों में करार हुए, ताकि जीपीएस को आम लोगों तक पहुंचाया जाए। साल 2000 में जीपीएस को पूरी दुनिया में फ्री कर दिया। जिसके बाद जीपीएस हमारी जिंदगी में आ पाया और हमारी जिंदगी आसान बना पाया.

आज जीपीएस हमारे फोन में मुफ्त है, जिसका हम कभी भी अपनी मर्ज़ी से इस्तेमाल कर सकते हैं। मगर फ्री जीपीएस देने के लिए करोड़ों डॉलर की लागत आती है। जो कंपनियां इसे आम लोगों तक पहुंचाती है, उन्हें करोड़ों रुपए चुकाना पड़ता है। इस वक्त जीपीएस को चलाए रखने के लिए 24 सैटेलाइट ली मदद ली जाती है। जिसका सालाना खर्चा करीब 750 मिलियन डॉलर आता है। रोजाना करीब 2 मिलियन डॉलर इसे अंतरिक्ष में बनाए रकने के खर्च हो जाते हैं।

कारगिल के युद्ध में पाकिस्तान ने पहाड़ियों पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। भारत की सेना को अंदाजा नहीं था कि उसके सैनिकों ने कहाँ पर अपने बंकर बनाए हैं। उस समय भारत और पाकिस्तान दोनों ही ऐसे देश थे, जिनके पास जीपीएस नहीं था। भारत ने अमेरिका से जीपीएस की मदद मांगी। मगर अमेरिका ने नहीं दिया। भारत ने उसके बाद खुद का जीपीएस बनाने में जुट गया। कुछ सालों की मेहनत के बाद ही ‘इसरो‘ ने अपने सैटेलाइट बना लिए और उन्हें आसमान में छोड़ दिया। आज जीपीएस भारत और उसकी सीमा से 1500 किलोमीटर दूर तक की चीज पर नजर रख सकता है।

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