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जिस वीर की अस्थि कलश प्रधानमंत्री जी के हाथों में है, उसकी कहानी बड़ी ही दिलचस्प है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 4 अक्टूबर को सोशल मीडिया पर एक तस्वीर शेयर की थी। जिसमें वे हाथ में एक अस्थि कलश लिए दिखाई दे रहे हैं। फोटो में उनके साथ कुछ विदेशी भी नजर आ रहे हैं। पीएम मोदी ने इस तस्वीर को शेयर करते हुए ट्वीट किया है जिसमें उन्होंने श्याम जी कृष्ण वर्मा को याद किया है। आपको बता दें कि पिछली मन की बात में मोदी जी ने कहा था कि देश की आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर हमें उन सेनानियों को भी याद करना चाहिए जिनकी वजह से आज हम एक आजाद भारत में सांस ले रहे हैं। श्यामजी कृष्ण वर्मा ऐसे ही एक महानायक है जिनकी कहानी बहुत कम लोग जानते हैं हालांकि उन्होंने देश की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

गुजरात के कच्छ में जन्मे श्यामजी कृष्ण वर्मा ने की वकालत

श्याम जी कृष्ण वर्मा

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को गुजरात प्रान्त के माण्डवी कस्बे में हुआ था। वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1888 में अजमेर से अपनी वक़ालत की पढ़ाई की। वक़ालत के दौरान ही उन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिये कार्य करना शुरू कर दिया था। वक़ालत करने के बाद उन्होंने मध्य प्रदेश के रतलाम और उसके बाद गुजरात के जूनागढ़ रजवाड़े में दीवान पद पर कार्य किया। इसी दौरान वर्मा देश में अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क रही धधकती चिनगारी से अछूते नहीं रह सके। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित श्यामजी कृष्ण वर्मा भी धीरे-धीरे क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर रुख करने लगे। तब उनकी आयु मात्र 20 वर्ष थी।

विदेश में रहकर दिया था आजादी के लिए योगदान

श्यामजी कृष्ण वर्मा ऐसे क्रांतिकारी हैं जिन्होंने विदेश में रह कर स्वाधीनता की ज्योति जलाए रखी थी। उन्होंने न सिर्फ विदेश से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी,बल्कि विदेश में एक इंडियन हाउस की स्थापना कर भारतीय छात्रों के लिए छात्रवृत्ति की भी शुरूआत की। वे क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से भारत की आज़ादी के संकल्प को गतिशील करने वाले अध्यवसायी एवं कई क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। आपको बता दे की वे पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम॰ए॰ और बार-ऐट-ला की उपाधियाँ मिली थीं। उन्होंने पुणे में संस्कृत में एक जगह भाषण दिया था जिससे प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने श्यामजी कृष्ण वर्मा को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था। जिसके बाद उन्होंने लन्दन में इण्डिया हाउस की स्थापना की, जो इंग्लैण्ड जाकर पढ़ने वाले छात्रों के लिए मिलने और विचार-विमर्श का एक प्रमुख केन्द्र था।

30 मार्च 1930 को जेनेवा में हुआ था निधन

श्यामजी कृष्ण वर्मा का निधन 30 मार्च 1930 को जेनेवा के एक हॉस्पिटल में हुआ। जिसके बाद उनकी अस्थियां जेनेवा की सेंट जॉर्ज सिमेट्री में रख दी गई। उनकी पत्नी की मौत के बाद उनकी अस्थियों को भी उसी सिमेट्री में रखा गया। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपने मरने से पहले ही उस सिमेट्री से यह कॉन्ट्रैक्ट किया था कि उनके मरने के बाद 100 साल तक उनकी और उनकी पत्नी की अस्थियों को सुरक्षित रखेंगे। फिर जब भारत आजाद हो जाएगा। तो भारत का कोई बेटा आकर उनकी अस्थियां विसर्जन के लिए ले जाएगा। हालांकि उनकी मौत के 17 साल बाद जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने श्याम जी कृष्ण वर्मा की अस्थियों को भारत लाने में कोई रुचि नहीं दिखाई।

2003 में अस्थियां भारत लाए थे नरेंद्र मोदी

22 अगस्त 2003 को भारत की स्वतन्त्रता के 55 साल बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने स्विस सरकार से अनुरोध करके जेनेवा से श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत मँगाया। उसी समय की तस्वीर को पीएम मोदी ने श्यामजी कृष्ण वर्मा के जन्मदिन की वर्षगांठ पर सोशल मीडिया पर शेयर किया है। आपको बता दें कि बम्बई से लेकर माण्डवी तक पूरे राजकीय सम्मान के साथ भव्य जुलूस के साथ उनके अस्थि-कलशों को गुजरात लाया गया था। वर्मा के जन्म स्थान में दर्शनीय क्रान्ति-तीर्थ बनाकर उसके परिसर स्थित श्यामजीकृष्ण वर्मा स्मृतिकक्ष में उनकी अस्थियों को संरक्षण दिया किया।

उनके जन्म स्थान पर गुजरात सरकार द्वारा विकसित श्रीश्यामजी कृष्ण वर्मा मेमोरियल को गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 13 दिसम्बर 2010 को राष्ट्र को समर्पित किया। कच्छ जाने वाले सभी देशी विदेशी पर्यटकों के लिये माण्डवी का क्रान्ति-तीर्थ एक पर्यटन स्थल बन चुका है।

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